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Delhi High Court: लोगों के एक अहम अधिकार की राह में आ रहा AI, जजों ने जताई चिंता

Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट के तीन जजों ने कहा है कि डिजिटल युग में ‘भूल जाने का अधिकार’ (Right to be Forgotten) लोगों के सम्मान और निजता की रक्षा के लिए जरूरी है, लेकिन हर मामले का फैसला उसके तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर होना चाहिए।

AI becoming obstacle right to be forgotten Delhi High Court judges expressed concern
दिल्ली हाईकोर्ट के तीन जजों ने 'भूल जाने का अधिकार' पर जताई चिंता।

Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट के तीन जजों ने ‘भूल जाने का अधिकार’ पर विस्तृत चर्चा की और इसे लोगों के लिए जरूरी बताया। हालांकि जजों ने ये भी कहा कि हर मामले में ये लागू नहीं होता है। ‘भूल जाने का अधिकार’ वाला फैसला तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर लिया जाना चाहिए। यह चर्चा मंगलवार को जस्टिस मिनी पुष्करणा, जस्टिस अनीश दयाल और जस्टिस तेजस करिया के बीच हुई। तीनों जज मंगलवार को ‘मंगलवार समूह’ की 50वीं कानूनी चर्चा में बोल रहे थे। इस कानूनी चर्चा का विषय “डिजिटल युग में भूल जाने का अधिकार: निजता, जनहित और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में संतुलन” था।

भूल जाने का अधिकार कोई विलासिता नहीं : जस्टिस मिनी पुष्करणा

कानूनी चर्चा के दौरान अपनी बात रखते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस पुष्करणा ने कहा कि इस अधिकार को अतीत छिपाने का साधन न मानकर जीवन में आगे बढ़ने की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। उन्होंने सदानंद बनाम CBSE मामले का हवाला देते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत पहचान बदलने का अधिकार व्यक्ति की गरिमा का हिस्सा है। ताकि जाति आधारित पहचान से होने वाले भेदभाव से बचा जा सके।

लाइव लॉ के अनुसार, जस्टिस पुष्करणा ने कहा "कभी-कभी लोगों को अपनी जान बचाने और वर्तमान में जीने के लिए अतीत को पीछे छोड़ना पड़ता है। निजता विलासिता नहीं है, सम्मान के साथ जीना विलासिता नहीं है और भूल जाने का अधिकार भी विलासिता नहीं है।" उन्होंने जोर देते हुए कहा कि अगर कोई अदालत से बाइज्जत बरी हो चुका है तो समाज का कर्तव्य है कि उसे उसी सम्मान के साथ आगे बढ़ने का अवसर दिया जाए।

‘डिजिटल अमरता’ की विडंबना : जस्टिस अनीश दयाल

जस्टिस दयाल ने ‘डिजिटल अमरता’ (Digital Immortality) की अवधारणा पर चर्चा करते हुए कहा कि इंटरनेट पर डाली गई सामग्री अक्सर स्थायी हो जाती है। उन्होंने कहा "हम रोज सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपनी जानकारी साझा करते हैं। विडंबना यह है कि हम ज्यादातर मामलों में नहीं चाहते कि हमें भुला दिया जाए, लेकिन कुछ स्थितियों में हम चाहते हैं कि हमारा अतीत मिटा दिया जाए।" जस्टिस अनीश दयाल ने भूल जाने के अधिकार से जुड़े तीन प्रमुख पहलुओं का उल्लेख किया।

इसमें डेटा संग्रहकर्ताओं से जानकारी हटाना, अदालत के रिकॉर्ड से नाम या संदर्भ मिटाने की मांग और मध्यस्थ प्लेटफाॅर्म (Google, Facebook) से डेटा हटवाना शामिल थे। जस्टिस दयाल ने साल 2023 के डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट की धारा 12 का हवाला दिया, जो डेटा मिटाने का अधिकार देती है, लेकिन इसे भूल जाने के अधिकार का केवल एक उपसमूह बताया। उन्होंने यह भी कहा कि अदालत का फैसला हटाना एक कठोर कदम है और यह खुली अदालत प्रणाली के सिद्धांत से टकरा सकता है।

डेटा हटाना और भूल जाना अलग : जस्टिस तेजस करिया

जस्टिस करिया ने कहा कि इंटरनेट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने जानकारी तक पहुंच को आसान बना दिया है, जिससे भूल जाने का अधिकार लागू करना चुनौतीपूर्ण हो गया है। उन्होंने कहा "अगर इंटरनेट या डिजिटल फुटप्रिंट न होते तो हमें ज्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं होती।" उन्होंने डेटा हटाने और भूल जाने के अधिकार में अंतर बताते हुए स्पष्ट किया कि बाद वाला एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें किसी व्यक्ति की जानकारी तक सार्वजनिक पहुंच को पूरी तरह रोकना शामिल है।

भारत में फिलहाल ऐसा कोई स्पष्ट कानून या सुप्रीम कोर्ट का निर्णय नहीं है जो इस अधिकार को पूरी तरह मान्यता देता हो। मौजूदा कानून (2023 अधिनियम) केवल डेटा मिटाने की अनुमति देता है। उन्होंने कहा "समस्या तब बढ़ जाती है जब कोई तीसरा व्यक्ति आपकी जानकारी इंटरनेट पर डाल देता है और वह कई प्लेटफॉर्म पर फैल जाती है। हटाने के आदेश भी केवल मूल स्रोत पर लागू होते हैं, जिससे प्रवर्तन यानी उचित आदेश का पालन करवाना मुश्किल हो जाता है।"

आखिर क्यों चर्चा में आया भूल जाने का अधिकार?

दरअसल, ‘भूल जाने का अधिकार’ यूरोप में GDPR (जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन) से लोकप्रिय हुआ। जिसके तहत लोग सर्च इंजनों और वेबसाइटों से अपनी पुरानी, अप्रासंगिक या हानिकारक जानकारी हटवा सकते हैं। भारत में यह अवधारणा अभी पूर्ण रूप से लागू नहीं है। साल 2023 का डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट डेटा मिटाने का अधिकार देता है, लेकिन इंटरनेट से सभी संदर्भ हटाने की गारंटी नहीं देता।

क्यों जरूरी है ‘भूल जाने का अधिकार’?

कई बार सोशल मीडिया या फिर व्यक्तिगत स्तर पर लोगों से होने वाली मामूली गलतियां भविष्य के लिए बड़ा खतरा बन जाती हैं। इसलिए भारत के कानूनी क्षेत्र में इसकी चर्चा शुरू हो गई है। इसमें मुख्य रूप से कुछ प्रमुख बिंदुओं पर फोकस किया है। जैसे करियर और नौकरी में की गई गलतियां या फिर मानवीय त्रुटियां भविष्य में नकारात्मक खबरें सामने आ सकती हैं, जो उम्मीदवार की छवि खराब कर सकती हैं। भले ही वे गलत साबित हों। इसके अलावा व्यक्तिगत या गलत जानकारी रिश्तों को प्रभावित कर सकती है। अतीत की नकारात्मक घटनाओं का बार-बार सामने आना अवसाद और चिंता बढ़ा सकता है। इससे मानसिक स्वास्‍थ्य को खतरा होता है। इसके अलावा कुछ मामलों में पुराना डेटा लोगों को हिंसा या उत्पीड़न के खतरे में डाल सकता है। इसलिए इंटरनेट पर भूल जाने का अधिकार ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।