दिल्ली की जनता ने फैसला सुना दिया है। कई लोगों को ऐसे फैसले की उम्मीद पहले से ही थी। जिन्हें संशय था वे भी फैसले से हैरान नहीं दिखे। न ही उनमें दिल्ली खोने वाली आप और नई दिल्ली खोने वाले अरविंद केजरीवाल के प्रति हमदर्दी दिखी। 70 में से 67 और 62 सीटें जीत कर क्रमशः 2015 और 2020 में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी (आप) का यह हाल आखिर क्यों हुआ? वोट के आंकड़ों का विश्लेषण तो अभी होगा, लेकिन ये कुछ कारण साफ लगते हैं।
2015 में पहली बार आप की बहुमत की सरकार बनने के बाद से ही धीरे-धीरे अरविंद केजरीवाल का दोहरापन दिल्ली की जनता के सामने आने लगा। शुरुआत में वह कहां उम्मीदवार भी आम जनता से पूछ कर तय करने की बात कर रहे थे, लेकिन 2025 आते-आते ऐसा हुआ कि आज अवध ओझा को आप में लिया और कल विधानसभा चुनाव का टिकट (मनीष सिसोदिया की पटपड़गंज सीट से) दे दिया। वैगन आर छोड़ कर लग्ज़री कार में तो केजरीवाल बहुत पहले सवार हो गए थे, आलीशान बंगले में रहने का शौक भी छोड़ न सके। लाल बत्ती वाली गाड़ी-बड़ा बंगला नहीं लेने की जरूरत वाले वादे-दावे भुला दिए।
बतौर सीएम अपने लिए केजरीवाल ने जो सरकारी हवेली बनवाई उसका खर्च सामने आया तो बड़े-बड़े धनकुबेर भी अवाक रह गए। भाजपा ने भी इसे मुद्दा बना कर भुनाया और क्या खूब भुनाया! आप को इसकी काट ढूंढते न बना। पार्टी ने इस मुद्दे पर भाजपा को जवाब देने के लिए जिस तरह पीएम के आवास पर धावा बोलने की कोशिश की, वह लोगों को रास नहीं आया।
अरविंद केजरीवाल का दोहरापन यहीं तक सीमित नहीं रहा। राजनीति के शुरुआती सालों में उन्होंने आदर्श की जो भी बातें की थीं और विपक्षी दलों पर निशाना साधते हुए जिन बातों से खुद को दूर रखने का भरोसा दिलाया था, जनता ने एक-एक कर सबको ध्वस्त होते हुए देखा। उनकी लिस्ट गिनाई जाए तो जगह कम पड़ जाएगी। इसलिए आगे बढ़ते हैं।
लगातार नैतिकता की दुहाई देने वाले अरविंद केजरीवाल खुद नैतिकता से दूर ही दिखते रहे। यहां तक कि जेल जाने से पहले उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा तो नहीं ही दिया, उल्टे जेल से सरकार चलाने की मांग पर अड़े रहे। और, जेल से निकलते ही इस्तीफा देकर राजनीतिक दांव फेंका। ‘ईमानदारी का सर्टिफिकेट’ मांगने निकल पड़े। जनता ने आज दिखा दिया कि उसे यह नाटक तभी समझ आ गया था।
भाजपा पर अक्सर मीडिया मैनेजमेंट करने और मीडिया को दबाव में रखने के आरोप लगते रहे हैं। इसे लेकर आप भी कई बार भाजपा पर हमलावर रही है। लेकिन कई मौके ऐसे आए जब इस मामले में आप खुद बेपरदा हो गई। अवध ओझा के एक इंटरव्यू के दौरान भी ऐसा वाकया हो गया, जिससे यह साफ हो गया कि आप की टीम ने इंटरव्यू से पहले सवाल-जवाब को लेकर कुछ निर्देश दिए थे कि किन मुद्दों पर सवाल नहीं करना है। इंटरव्यू के दौरान आप के लोग कैमरे के पीछे मौजूद थे और उन्होंने इंटरव्यू करने वाले को यह कहते हुए रोका-टोका कि इस मसले पर बात नहीं की जाएगी, यह तय हुआ था। यह महज एक उदाहरण है। इस तरह यहां भी पार्टी में लोकतंत्र, बाकी दलों से अलग जैसे दावों की पोल खुल गई।
पार्टी के फैसलों व नीतियों और खुद अरविंद केजरीवाल के व्यवहार के चलते कई नेताओं ने पार्टी छोड़ी। तमाम बड़े नेताओं के जेल जाने के चलते पार्टी का प्रबंधन कमजोर हुआ। खुद अरविंद केजरीवाल जेल गए तो भी उन्होंने कमान पूरी तरह अपने ही हाथ में रखना चाहा। पार्टी के मामले में भी पार्टी के किसी करीबी सहयोगी से ज्यादा भरोसा पत्नी पर किया। चुनाव के वक्त टिकट बंटवारे में भी मनमर्जी दिखाई। इस सब कारणों से नेताओं व कार्यकर्ताओं में जोश नहीं रहा। उनकी सुस्ती, निराशा, गुस्सा का परिणाम यह रहा कि चुनाव के लिए जमीन पर जूझने वाले कार्यकर्ता बड़ी संख्या में नहीं रहे।
चुनाव से ऐन पहले बीजेपी ने जो मुद्दे उछाल कर आप पर हमला बोला, आप उसका दमदार जवाब नहीं दे सकी। ‘शीशमहल’ के मुद्दे पर हमला बोलने के लिए आप ने जो नीति अपनाई वह कई लोगों को अव्यावहारिक और अतिवादी लगी। प्रधानमंत्री के घर धावा बोलने की आप नेताओं की कोशिशों को कई लोगों ने देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा और निजी हमला से जोड़ कर देखा। अन्य मामलों में भी भाजपा के हमलों पर आप की ओर से दिए गए जवाब को लोगों ने दमदार नहीं माना।
पिछले दो चुनावों में आप के लिए मुफ्त के वादों ने अच्छा काम किया था। तीसरी बार भी वह मुख्य रूप से ऐसे ही वादों के भरोसे रही। जबकि, इस बीच यह ‘चुनावी तकनीक’ कई राज्यों में अपनाई जा चुकी है और भाजपा इसका फायदा भी ले चुकी है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है। दिल्ली में भी भाजपा ने यह दांव बढ़-चढ़ कर चला। ऐसे में केजरीवाल जनता को आप को एक और मौका देने के लिए कोई खास वजह नहीं दे सके।
लगातार तीसरी बार एक चेहरे पर चुनाव जीतना आसान बात नहीं है। इसके लिए नेता को कई बातों के अलावा अपनी छवि लगातार मजबूत करनी पड़ती है। केजरीवाल यह नहीं कर पाए। उनकी छवि धूमिल ही होती रही। ऐसे में भावनात्मक रूप से जनता आप से दूर होती गई। इस पार्टी का जन्म ही भ्रष्टाचार के खिलाफ उमड़ी जनभावना के दम पर हुआ था। केजरीवाल उस बुनियाद को लगातार कमजोर करते गए। नतीजा आज 'सत्ता का शीशमहल' ढह गया।
Updated on:
09 Feb 2025 07:22 am
Published on:
08 Feb 2025 04:57 pm