Mayor vs Municipal Commissioner: लखनऊ नगर निगम में 31 जुलाई को आयोजित मृतक आश्रितों को नियुक्ति-पत्र सौंपने और सेवानिवृत्त कर्मचारियों के सम्मान समारोह को लेकर अब सियासी गरमी चरम पर पहुंच गई है। इस समारोह में लखनऊ की महापौर सुषमा खर्कवाल को आमंत्रित नहीं किए जाने पर उन्होंने नगर आयुक्त गौरव कुमार को एक तीखा और कड़ा पत्र भेजा है, जिसमें उन्होंने नगर निगम प्रशासन की कार्यशैली और उनके प्रति दिखाई गई उपेक्षा पर गहरी नाराजगी जताई है। यह पत्र अब सिर्फ एक शिकायत नहीं बल्कि निगम प्रशासन और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के बीच संवादहीनता और सत्ता संघर्ष का प्रतीक बनता जा रहा है।
महापौर ने पत्र में लिखा है कि न तो उन्हें इस गरिमामय और संवेदनशील कार्यक्रम की कोई जानकारी दी गई, न ही उनके कार्यालय को सूचना दी गई। कार्यक्रम में मृतक कर्मियों के परिजनों को नियुक्ति पत्र और सेवानिवृत्त कर्मचारियों को विदाई दी गई, यह अपने आप में न केवल मानवीय संवेदना से जुड़ा विषय है बल्कि नगर निगम की गरिमा का भी प्रतीक है। ऐसे आयोजन में महापौर जैसे संवैधानिक पदाधिकारी को दरकिनार किया जाना, एक तरह से “संस्थागत अपमान” है।
पत्र में महापौर ने यह सवाल भी खड़ा किया कि क्या नगर निगम प्रशासन अब यह मानने लगा है कि महापौर की उपस्थिति कार्यक्रमों में जरूरी नहीं है? उन्होंने लिखा, “यह अत्यंत खेदजनक है कि नगर निगम में उच्च प्रशासनिक अधिकारी जनप्रतिनिधियों की गरिमा की परवाह किए बिना निर्णय लेने लगे हैं।” महापौर ने नगर आयुक्त को स्पष्ट शब्दों में चेताया कि “क्या यह एक नया चलन बनता जा रहा है कि संवैधानिक पदों की उपेक्षा कर प्रशासनिक निर्णय लिए जाएं?”
सुषमा खर्कवाल ने अपने पत्र में 31 जुलाई को ही जारी किए गए कार्य विभाजन आदेश पर भी गंभीर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि तीन नव नियुक्त सहायक नगर आयुक्तों को विभाग तो दे दिए गए, लेकिन न तो उन्हें कोई कार्य कक्ष उपलब्ध कराया गया और न ही कोई सहायक स्टाफ। उन्होंने इसे प्रशासनिक असंवेदनशीलता और जल्दबाजी में लिए गए फैसलों का परिणाम बताया।
महापौर का स्पष्ट आरोप है कि इन सहायक नगर आयुक्तों को कार्य देने से पहले उनसे कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि अब तक की परंपरा रही है कि ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयों से पहले महापौर से सलाह ली जाती है। इस बार इस परंपरा की पूरी तरह अवहेलना की गई।
नगर निगम के आंतरिक गलियारों में इस पत्र को लेकर गहन चर्चा है। कई वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि यह कोई सामान्य चूक नहीं, बल्कि जानबूझकर किया गया प्रशासनिक बहिष्कार है। यदि यह आरोप सच साबित होते हैं, तो यह नगर निगम के भीतर चल रहे एक बड़े सत्ता संघर्ष की ओर इशारा करता है।
नगर निगम की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकारों का मानना है कि यह मुद्दा आने वाले नगर निगम चुनावों या भाजपा की स्थानीय राजनीति पर असर डाल सकता है। महापौर की उपेक्षा को यदि पार्टी संगठन के भीतर मुद्दा बनाया गया, तो यह नौकरशाही और जनप्रतिनिधियों के बीच संतुलन की गंभीर चुनौती बन सकता है।
यह पहली बार नहीं है जब नगर निगम प्रशासन और महापौर के बीच टकराव की स्थिति बनी हो। लेकिन इस बार मामला संवेदनशील आयोजन से जुड़ा होने के कारण यह मुद्दा जनता की संवेदना से भी जुड़ गया है। लोग यह जानना चाहते हैं कि जब किसी संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति भी उपेक्षित है, तो आम जनता की सुनवाई कैसे होगी?
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Published on:
02 Aug 2025 09:11 am