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एक बंगले की दास्तां… मैंने देखा है किशोर कुमार के जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर

-आज भी मेरी दरकती दीवारों में गूंजती है किशोर कुमार की यादें -किशोर स्मारक के रूप में फिर से पाना चाहता हूं नया जीवन

खंडवा

Manish Arora

Aug 04, 2025

kishore kumar
खंडवा. किशोर कुमार के बंगले की दरकती दीवारें।

मेरा नाम गांगुली हाउस है, मैं खंडवा के एमजी रोड बांबे बाजार में आज भी अपने पुराने दिनों को याद करते किसी उम्मीद के साथ खड़ा हूं। मैंने किशोर के जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर देखा है। मेरी दरकती दीवारें आज भी किशोर की यादों से गूंज उठती है। किशोर की मौत के बाद मेरा हमसफर एकमात्र मेरा रखवाला सीताराम ही रह गया है। मेरे अपनों ने किशोर की मौत के बाद कभी मेरी सुध नहीं ली।

मेरे आंगन में गूंजी थी किशोर की किलकारी
मेरी असली तो कहानी किशोर के जन्म के बाद ही शुरू हुई। मुझे याद है 4 अगस्त 1929 का वह दिन जब मेरी इन दीवारों के बीच कुंजलाल बाबू और गौरीदेवी गांगुली के आंचल में नन्हीं किलकारी गूंजी थी। कुंजलाल गांगुली और गौरीदेवी ने बड़े प्यार से नाम रखा था आभाष कुमार गांगुली, जो बाद में किशोर कुमार बना। मेरे ही आंगन में खेलते हुए किशोर ने गायकी के सुर सीखे थे। किशोर का अल्हड़ बचपन उसके अंतिम बार यहां आने तक भी कायम रहा। जब जब किशोर यहां आए, अपने साथ एक मौज मस्ती, दोस्तों की महफिल साथ लेकर आए। मुझे याद है 1982 में किशोर यहां एक कार्यक्रम देने आए। तब यहां ऐसी महफिल सजी कि मेरी पुरानी दीवारों में नई जान आ गई।

किशोर के साथ चली गई उम्मीदें भी
आखरी बार किशोर 30 सितंबर 1986 में यहां आए। तब ऐसा लगा मानों मेरे पुराने दिन फिरने वाले है। किशोर कहते थे दूध जलेबी खाएंगे, खंडवा में बस जाएंगे। दो दिन तक मैं इतना जीवंत था कि वह पल आज भी भुलाए नहीं भुलता है। किशोर अपने दोस्तों के साथ मेरे सामने सडक़ पर चहलकदमी करते, दोस्तों के साथ हंसी मजाक करते। तब उनके साथ भाई अनूप कुमार भी यहां आए थे। दो दिन की यादें अब तक मेरे जहन में ताजा है। इसके बाद आया तो सिर्फ उनका पार्थिव शरीर। 13 अक्टूबर की वह मनहूस शाम जब किशोर ने इस दुनिया को अलविदा कहा। 15 अक्टूबर की शाम किशोर की पार्थिव देह यहां पहुंची। रातभर किशोर प्रशंसकों के साथ मैं भी आंसू बहाता रहा। मेरे ही सामने से उनका अंतिम सफर निकला।

अब तो यदा-कदा आती है मेरी याद
किशोर के जाने के बाद मुझे अपनों ने कभी याद नहीं किया। यहां मेरी तन्हाई का एक ही साथी है मेरा रखवाला सीताराम जो पिछले 40 साल से मेरी सेवा कर रहा है। सीताराम की तरह में भी बूढ़ा हो चला हूं। यहां किशोर के चाहने वाले 4 अगस्त और 13 अक्टूबर को आते हैं और मुझे एक नई ऊर्जा देकर चले जाते है। साल के इन दो दिन मैं अपने आप को किशोर के साथ महसूस करता हूं। मेरे आंगन में एक बार फिर 4 अगस्त को महफिल सजेगी, इसके बाद सब भूल जाएंगे।

किशोर स्मारक के रूप में हो पुनर्जन्म
मुझे पहचान मिली आभाष कुमार गांगुली के किशोर बनने के बाद। देश-विदेश में किशोर के साथ लोग खंडवा और मुझे भी पहचानने लगे। मुझे फक्र होता है जब लोग कहते है ये किशोर का बंगला है, ऐसा लगता है जैसे पिता को बेटा अपनी पहचान दे रहा है। किशोर की मृत्यु के बाद लगा मानों एक बूढ़ा पिता अनाथ हो गया। अब मेरी उम्र हो चुकी है और मैं कभी भी जमींदोज हो सकता हूं। मेरी बस यहीं इच्छा है कि मेरा पुनर्जन्म किशोर स्मारक के रूप में हो। क्या ये संभव हो पाएगा…?