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तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो…

कैफी आजमी का शेर, तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो... जोधपुरवासियों के चेहरों पर दौड़ती मुस्कान की जैसे हकीकत बयां कर देता है। राजस्थान के इस दूसरे बड़े शहर के निवासियों की पीड़ा का कोई सहजता से अंदाजा नहीं लगा सकता।

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अभिषेक सिंघल
कैफी आजमी का शेर, तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो... जोधपुरवासियों के चेहरों पर दौड़ती मुस्कान की जैसे हकीकत बयां कर देता है। राजस्थान के इस दूसरे बड़े शहर के निवासियों की पीड़ा का कोई सहजता से अंदाजा नहीं लगा सकता। मुस्कुराते चेहरे, मीठी बोली और अपणायत भरा व्यवहार भला कैसे मन की पीड़ा को उजागर होने दे सकता है। राजनीतिक तौर पर सदा से सशक्त रहे इस शहर के नागरिक अंदर ही अंदर कष्ट झेल रहे हैं। पानी के लिए शहर दशकों तरसा। जब पानी आया तो अब भी शहर के कई इलाकों में लोग पानी खरीद कर पीने को मजबूर हैं। शहर में एक के बाद एक केन्द्रीय संस्थान- केन्द्र- राज्य सरकार के विश्वविद्यालय खुल रहे हैं। हर घोषणा जैसे नया सपना ले कर आती है पर जब आंख खुलती है तो ये ऊंची दुकान फीके पकवान ही साबित होते हैं।

इन बड़े बड़े संस्थानों का लाभ शहर की आम जनता के हिस्से में गर्व तक ही सिमट कर रह गया है। इनका उतना सीधा फायदा शहरवासियों को नहीं मिल पाता है, जितने की उम्मीद बंधती है। एम्स से पश्चिमी राजस्थान को राहत मिली है पर वहां भी जरूरत की तुलना में बिस्तर कम हैं। शहर में उप नगरीय चिकित्सा सुविधाओं के नाम पर पहले सेटेलाइट अस्पताल फिर जिला अस्पताल बने। दर्जा बढ़ा। नाम बदलने से हालात बदल गए हों ऐसा नहीं है। चिकित्सकों के पद सृजित हो गए पर खाली पड़े पदों से जनता का इलाज कैसे होगा? जीवट से भरे इस शहर के लोग घंटों कतार में लगने के बाद भी अपने से ज्यादा तकलीफ वाले को मुस्कुरा कर आगे कर देते हैं। पैला थे दिखा लौ, म्है थोड़ी टेम और खड़ो रह जाऊलां...। शहर की ह्रदय रेखा कहलाने वाली मंडोर से चौपासनी-पाल रोड तक के रास्ते में जगह-जगह जाम झेल लेंगे पर मजाल है जो किसी के चेहरे पर शिकन आ जाए। जाम से निजात पाने का इंतजाम फाइलों में अटका है।

एक दशक से ज्यादा हो गया पर एलिवेटेड रोड के लिए भाषण- घोषणा के नए-नए माया जाल से बाहर निकल कर जमीन पर गेंती तक नहीं चली। शहर के इस छोर से उस छोर तक रेलवे लाइन गुजर रही है। आपके पास चौपहिया वाहन है, दुपहिया वाहन है तो एक हिस्से से दूसरी तरफ जाने के लिए सर्र से एक अंडरपास से गुजर जाइए या दूसरे ओवर ब्रिज पर चढ़ कर निकल जाइए। यदि आप पैदल हैं तो लम्बे चक्कर के सिवा कोई चारा नहीं है। शॉर्टकट के कुचक्र में फंस कर लोग जान गंवा रहे हैं। पर कोई सुनने-देखने वाला नहीं है। किसी को बहते आसुंओं का मोल नहीं है। रेलवे को फुट ओवर ब्रिज बनाने में व्यावसायिक नफा नुकसान आंकने से फुर्सत नहीं है। कितनी गिनाएं...पीड़ाओं की जैसे झड़ी लगी है। जहां हाथ रखो वहीं दर्द फूट पड़ता है। इन हालात पर दुष्यंत कुमार का लिखा एक और शेर याद आता है... हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए...।