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रेत में रणबांकुरों ने हर बार दी पाकिस्तान को शिकस्त

मरुस्थल की तपती रेत, दूर-दूर तक फैले टीले, और उनके बीच सीना ताने खड़े भारत मां के वीर सपूत… यही है जैसलमेर-बाड़मेर की अंतरराष्ट्रीय सीमा, जहां हर पल तिरंगे की शान में आंखें चमकती हैं और बंदूकें सतर्क खड़ी रहती हैं।

मरुस्थल की तपती रेत, दूर-दूर तक फैले टीले, और उनके बीच सीना ताने खड़े भारत मां के वीर सपूत… यही है जैसलमेर-बाड़मेर की अंतरराष्ट्रीय सीमा, जहां हर पल तिरंगे की शान में आंखें चमकती हैं और बंदूकें सतर्क खड़ी रहती हैं। यहां तैनात जवान जानते हैं कि यह सिर्फ ड्यूटी नहीं, बल्कि मातृभूमि की रक्षा का प्रण है। इतिहास गवाह है कि जब भी पाकिस्तान ने इस सीमा से भारत की ओर नापाक कदम बढ़ाए, उसे मुंह की खानी पड़ी। 1965 और 1971 के युद्ध में रेतीली धरती पर दुश्मन की कोशिशें सिर्फ मृगतृष्णा साबित हुईं। तनोट माता मंदिर के पास के रणक्षेत्र और लोंगेवाला पोस्ट आज भी उस पराक्रम की कहानियां सुनाते हैं, जब भारतीय जवानों ने संख्या और हथियारों में कम होने के बावजूद भी अदम्य साहस से दुश्मन को पीछे धकेला था।

सरहद की निगेहबान: तनोट माता

जैसलमेर. सीमा से महज 18 किलोमीटर पहले विशालकाय तनोट मंदिर में आज यात्रियों की सुख-सुविधा के तमाम इंतजाम है। माता के प्रति आस्था रखने वाले भक्त मंदिर में रुमाल बांधकर मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु माता का आभार व्यक्त करने वापिस दर्शनार्थ आते हैं और रुमाल खोलते हैं। इस परम्परा का आम लोगों के साथ यहां आने वाले मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी, सेना व सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी व जवान भी निर्वहन करते हैं। यहां पर 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तान की ओर से करीब 3 हजार बम बरसाए गए थे, लेकिन वे फट नहीं पाए। उनमें से 450 जिंदा बम आज भी मंदिर में माता के साक्षात चमत्कार के तौर पर सजा कर रखे गए हैं। रुमाल वाली देवी के नाम से भी जाना जाता है। भारत-पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय सीमा की निगहबानी का काम सीमा सुरक्षा बल जितना बखूबी निभा रहा है, बल की उतनी ही हिफाजत सरहदी क्षेत्र में चमत्कारिक तनोटराय माता करती है। अंतरराष्ट्रीय सीमा क्षेत्र में स्थित तनोटराय देवी के मंदिर में पूजा-पाठ से लेकर व्यवस्थाओं का समूचा जिम्मा सीमा सुरक्षा बल के जवान और अधिकारी ही उठाए हुए हंै। यही कारण है कि यहां आध्यमिकता के साथ देशभक्ति के रंग भी बिखरे नजर आते हैं।

लोंगेवाला – जहां मिट्टी में गूंजती है जीत की कहानी

लोंगेवाला का नाम सुनते ही 1971 का वह ऐतिहासिक युद्ध याद आता है, जब महज 120 भारतीय जवानों ने 2000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों और उनके टैंकों को रोक दिया। मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के नेतृत्व में लड़ा गया यह युद्ध विश्व सैन्य इतिहास में अनूठा उदाहरण है। आज यहां स्थित ‘लोंगेवाला युद्ध स्मारक’ और म्यूजियम में टैंक, हथियार और युद्ध से जुड़ी वस्तुएं सुरक्षित हैं, जिन्हें देखने देशभर से लोग आते हैं। रेगिस्तान में ड्यूटी आसान नहीं। दिन में तापमान 45 डिग्री से ऊपर, रात में सर्द हवाएं, और बीच में लगातार पेट्रोलिंग का जिम्मा। फिर भी जवानों का मनोबल हमेशा ऊंचा रहता है। एक जवान बताते हैं – यहां की रेत में हमारे पूर्वजों का लहू मिला है, इसलिए इस सीमा की ओर आंख उठाने वाले को जवाब देने के लिए हम हमेशा तैयार रहते हैं।

स्थानीय लोग – सीमा के प्रहरी के साथी

सीमा से सटे गांवों के लोग भी जवानों के साथ खड़े रहते हैं। कई बार कठिन परिस्थितियों में पानी, दूध और जरूरी सामान पहुंचाने में ग्रामीण मददगार बनते हैं। युद्ध के समय भी गांव वालों ने सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया है। यही कारण है कि यहां फौज और आमजन का रिश्ता परिवार जैसा है।

टूरिज्म और शौर्य का संगम

आज तनोट और लोंगेवाला सिर्फ युद्धस्थल नहीं, बल्कि देशभक्ति से भरे पर्यटन स्थल बन चुके हैं। पर्यटक यहां आकर रेगिस्तान की सुंदरता के साथ-साथ वीरता की गाथा महसूस करते हैं। युद्ध म्यूजियम और सीमा की झलक हर भारतीय के दिल में गर्व भर देती है।

हर सांस में मातृभूमि की कसम

जैसलमेर-बाड़मेर की सीमा पर तैनात जवान जानते हैं कि उनका हर दिन देश के नाम है। उनकी चौकस निगाहें और तैयार हथियार बताते हैं कि दुश्मन चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, भारत की रेतीली धरती पर जीतना उसके लिए नामुमकिन है। तनोट और लोंगेवाला की गूंजती विजयगाथाएं हर पीढी को हमेशा याद दिला रही है कि आज़ादी सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि बलिदान और बहादुरी का परिणाम है।