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क्या है ‘शाहबानो केस’…? बनी है फिल्म, शाहबानो की बेटियों को फिल्म से ऐतराज

Shah Bano Case: मुस्लिम महिलाओं को भी भरण-पोषण की राशि पाने के अधिकार की नींव जिस शाहबानो केस से पड़ी थी, उस पर बनी फिल्म हक उलझ गई है। सुप्रीम कोर्ट तक संघर्ष करने वाली इंदौर की महिला शाहबानो की बेटियों ने फिल्म पर ऐतराज जताया है।

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Shah Bano case

Shah Bano case शाहबानो पर बन रही फिल्म पर ऐतराज (फोटो सोर्स : पत्रिका)

Shah Bano Case: मुस्लिम महिलाओं को भी भरण-पोषण की राशि पाने के अधिकार की नींव जिस शाहबानो केस से पड़ी थी, उस पर बनी फिल्म हक(HAQ) उलझ गई है। सुप्रीम कोर्ट तक संघर्ष करने वाली इंदौर की महिला शाहबानो की बेटियों ने फिल्म पर ऐतराज जताया है कि फिल्म में उनकी मां के निजी जीवन को दिखाया गया है। फिल्म बनाने के लिए उनसे अनुमति नहीं ली गई। सोमवार को हाईकोर्ट जस्टिस प्रणय वर्मा की कोर्ट में बहस हुई। कोर्ट ने इससे जुड़े दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर लेने की बात कहते हुए सुनवाई को मंगलवार तक आगे बढ़ा दिया है।

फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग

हाईकोर्ट में शाहबानो की बेटी सिद्दीका बेगम खान ने वकील तौसिफ वारसी के जरिए याचिका दायर की है। इसमें यामी गौतम धर और इमरान हाशमी अभिनीत फिल्म हक की 7 नवंबर को रिलीज पर रोक लगाने की मांग की है। याचिका में सिद्दीका बेगम की ओर से आरोप लगाया है कि उनकी मां की पहचान का इस्तेमाल करने के लिए फिल्म मेकर्स ने उनसे अनुमति नहीं ली। दावा किया है कि फिल्म सुप्रीम कोर्ट में चले अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम केस पर बनी है। जिस पर 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद शाहबानो(Shah Bano case) को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था।

कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से तर्क दिए गए कि फिल्म दिवंगत शाहबानो के निजी जीवन को दर्शाती है। उनकी ओर से फिल्म के प्रोड्यूसर्स इंसोमिनिया मीडिया एंड कंटेंट सर्विसेस लिमिटेड, हैरी बावेजा के बावेजा स्टूडियो प्रालि, जंगली पिक्चर्स, फिल्म के डायरेक्टर सुपर्ण वर्मा, केंद्र सरकार और सेंसर बोर्ड को कानूनी नोटिस जारी करते हुए फिल्म में उनकी मां के नाम का इस्तेमाल करने पर आपत्ति ली थी। इसे नजरअंदाज कर सेंसर बोर्ड ने फिल्म को प्रमाण पत्र भी जारी कर दिया।

फैसले और उपलब्ध साहित्य पर आधारित

फिल्म के निर्माताओं की ओर कहा गया कि फिल्म शाहबानो के जीवन पर नहीं, बल्कि फैसले और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है। वारसी ने फिल्म के टीजर को अपमानजनक बताया। निर्माताओं के तर्क पर दलील दी कि भले ही फिल्म को फिक्शन और केवल फैसले पर आधारित बता रहे हैं, लेकिन इसमें शाहबानो की पहचान असली है। हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कोई बात नहीं कर रहे हैं। इस दौरान कोर्ट ने मौखिक तौर पर याचिकाकर्ता के वकील से पूछा कि अगर उनकी मुवक्किल की मां ने संघर्ष किया है तो क्या यह उनके लिए सम्मान की बात नहीं होगी कि उनके संघर्ष को अपने अधिकारों के लिए की जाने वाली लड़ाई के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है। इस पर वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता की मां के जीवन की घटनाओं का उपयोग करने की अनुमति तो निर्माताओं को लेनी चाहिए थी। कोर्ट ने पूछा कि क्या अनुमति लेनी जरूरी है। इस पर कोर्ट के पूर्व में दिए गए फैसले की प्रति कोर्ट में पेश की गई।

काल्पनिक फिल्म का प्रमाण पत्र

सेंसर बोर्ड के वकील ने कहा कि बोर्ड ने काल्पनिक फिल्म के आधार पर प्रमाण पत्र दिया है। टीजर में भी फिल्म को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आधारित बताया है। अगर कोई बात सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा है तो किसी सहमति की आवश्यकता नहीं है। निर्माता जंगली मूवीज की ओर से बताया गया कि फिल्म में डिस्क्लेमर दिया गया है कि ये फिल्म भारत की बेटी नामक किताब और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर आधारित है।

यह है शाहबानो केस

  • इंदौर के वकील अहमद खान का शाहबानो से 1932 में निकाह हुआ था। 1946 में अहमद खान ने दूसरी शादी कर ली और बाद में शाहबानो को तीन तलाक दिया। खान ने उन्हें मौखिक रूप से प्रतिमाह 200 रुपए गुजारा भत्ता देने का वादा किया था, लेकिन 1978 यह राशि देनी बंद कर दी।
  • शाहबानो ने गुजारा भत्ता के लिए जिला अदालत में केस लगाया। कोर्ट में अहमद खान ने इस्लामिक कानून के तहत तलाक देने की बात कही और इससे ज्यादा गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया।
  • अगस्त 1979 में जिला कोर्ट ने शाहबानो को प्रतिमाह 25 रुपए गुजारा भत्ता देने का आदेश अहमद खान को दिया।
  • शाहबानो ने इसे कम बताते हुए हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिस पर 1 जुलाई 1980 को हाईकोर्ट ने गुजारा भत्ता की राशि 179 रुपए 20 पैसे कर दी।
  • हाईकोर्ट के इस फैसले को अहमद खान ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
  • 1981 में इस केस की सुनवाई कर रही दो जजों की खंडपीठ ने इसे विस्तृत पीठ के पास भेज दिया।
  • पांच जजों की खंडपीठ में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा ए हिंद भी इंटरविनर के तौर पर पेश हुए।
  • 23 अप्रेल 1985 को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने अपील खारिज कर फैसला दिया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 125 सभी पर लागू है।
  • सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम संगठनों ने धार्मिक कानूनों पर हमला बताते हुए प्रदर्शन किए।
  • तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के नाम से कानून बनाया। इसमें इस्लामी कानून के प्रावधानों के अनुसार, तलाकशुदा महिला को एक मुश्त या केवल इद्दत की अवधि के दौरान या तलाक के 90 दिन तक गुजारा भत्ता देने की बात कही गई।
  • इसका विपक्ष सहित अन्य पार्टियों ने विरोध किया और इसे तुष्टीकरण का फैसला बताया।
  • वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को ही खत्म कर दिया।