बरुण सखाजी
रतनपुर के नजदीक रानीगांव में फैली बीमारी को लेकर स्वास्थ्य विभाग की टीम का काम अपेक्षित नहीं रहा। कलेक्टर संज्ञान न लेते तो शायद यहां इलाज झोलाछापों के हाथों ही हो पाता। यकीन नहीं होता कि जिस वक्त दुनिया अंतरराष्ट्रीय भयानक संक्रामक बीमारी कोरोना से जूझ रही है, वहां भी अमले का अपना ढर्रा निराशाजनक है। जब हम आए दिन चीन की खबरें पढ़ते हैं, जहां 10 दिन के भीतर एक पूरा अस्पताल बना दिया गया। जहां हम भारत की उस पहल की खबरें भी पढ़ते हैं जब कई देशों से भारतीयों को एयरलिफ्ट किया जा रहा है। वुहान जैसे शहर से लोगों को लिफ्ट किया जाना बड़ी कामयाबियों में से एक है। ऐसे में हमारे रानीगांव की इस बीमारी को इतना कैजुअल लिया गया, दुर्भाग्य है।
यह दरअसल एक किसी घटना की बात नहीं, बल्कि हमारे यहां के पारंपरिक रवैये की बात है। हम बीमारियों को गंभीरता से नहीं लेते। न इनकी भयावहता और कष्ट को ही बहुत भीतर से महसूस कर पाते। खासकर सरकारी चिकित्सा का जो अमला होता है वह मरीजों से दुर्व्यवहार से लेकर उपेक्षा तक का आदी होता है। वह इन बीमारियों को नियति और अपने काम को भार समझता है। इसी आदत के चलते ही निजी चिकित्सा सेवाएं कइयों गुना महंगी और अविश्वसनीय होने के बावजूद फलफूल रही हैं। वहीं जब हम सरकारी व्यवस्था पर आते हैं तो यहां का हाल ही बेहाल है। यह बात बड़ी अजीब है या दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की सबसे प्रतिष्ठित और कठिन परीक्षाओं के बाद सरकारी सेवाओं का अवसर मिल पाता है, लेकिन यह एक्सीलेंसी कुर्सी पर बैठते ही छूमंतर हो जाती है। रानीगांव में मूलभूत इलाज तो हो ही जाएगा, आज नहीं तो कल सब ठीक भी हो जाएगा, मगर इससे हम सीखते क्या हैं?
अब कोरोना पर आइए, देखिए हमारी क्या तैयारी है। वो तो भला हो मौसम का जहां हम गर्म क्षेत्रों में आते हैं, वरना संक्रामक विषाणु जनित रोगों की मार हम पर ही ज्यादा पड़ती। बीते एक सप्ताह से भारत में कोरोना का कोहराम है। बाजार अपने फायदे देख रहा है, इंसानियत खो गई है। मॉस्क की इतनी किल्लत है। रायगढ़ से लेकर अंबिकापुर तक। बिलासपुर से लेकर कोरिया तक। मगर कोई स्थानीय प्रशासनिक पहल नहीं हो पाती जिसमें ऐसी कालाबाजारियों पर कोई कार्रवाइ दिखाई देती। दरअसल हम आदतन लापरवाह हैं। हम मतलब जनता भी और व्यवस्था भी।
Updated on:
14 Mar 2020 10:03 pm
Published on:
15 Mar 2020 06:00 am